Sunday, 30 September 2012

बनारस के घाट पर


कुछ था जरुर बनारस के घाट पर,
धुंधला दिखा लिबास बनारस के घाट पर|
 
घर था हज़ार कोस मगर फिकर साथ थी,
मन हो गया उदास बनारस के घाट पर|
 
साँझा करिया की संधि में विचलित हुआ ये मन,
गढ़ने लगा समय बनारस के घाट पर|
 
दुनिया के रंग देख कर हर रोज कबीर,
करता है अथाहस बनारस के घाट पर|
 
बदरंग हुआ जल तमाम मछलिय मरी,
किसका हुआ निवास बनारस के घाट पर|
 
फिर औ भागीरथ नयी सी गंगा बुलाओ,
गता है रविदास बनारस के घाट पर|
 
जमने लगी है आरती उत्सव भी हो रहे,
फिर से जगी है आस बनारस के घाट पर|
 
कशी को बम का खौफ आमा भूल जाइये,
मत बोइये खटास बनारस के घाट पर|
 
दीना की चाट खूब तो अख्टर की मल्लियो,
रिश्तो में है मिठास बनारस के घाट पर|
 

 

Monday, 10 September 2012

जिंदगी एक क़र्ज़ सी


                        जिंदगी एक क़र्ज़ सी
                                                                             आख़िरकार कई दिनों के बाद जिंदगी एक क़र्ज़ सी लगने लगी हैं| कहीं न कहीं कुछ तो है जो यह सोचने पर मजबूर कर देता हैं की यें जिंदगी आपकी नहीं हैं बल्कि उधर ली हुई हैं और उसका कर्ज हमें हर कदम, हर समय पे चुकाना पड़ता हैं| यह अहसास आज सुबह ही मुझें हुआ, जब मैं घर से निकल रहा था| तभी पीछे से आवाज आई “शाम को आते समय सब्जियां लेते आना”, लेकिन मैं आवाज को अनसुना करता हुआ अपनी ही मस्ती में आगे बढ़ने लगा| कुछ दूर आगे बढा ही था की एक बच्चा हाथ में कटोरा लिए हुए, फंटे-पुराने कपडे पहने और आँखों में मासूमियत के छोटे-छोटे तारे बनाये हुए कुछ पाने की चाह में मेरे सामने आ खड़ा हुआ| उसे देखते ही मेरे हाथ बिना मेरी इज्जाजत लिए जेब की तरफ बढ़ उठे, कुछ टटोलने के बाद बहार निकले और मेरे मुहँ से निकल पड़ा “छुट्टे नहीं हैं”| मैं आगे बढ़ चला और तब तक पीछे मुड़कर नहीं देखा जब तक मुझे विश्वास नहीं हो गया की अब मैं उस बच्चे की आँखों से ओझल हो चूका हूँ|
                                                                   दिनभर के सारे कामो को निपटने के बाद शाम को जब सब्जी लेकर घर पंहुचा तब तक मेरे सारे पैसे खत्म हों चुके थें| तब मैंने माँ से ही पैसे मांगना उचित समझा और उसी छोटे बच्चे की तरह आँखों में मासूमियत के तारे टिमटिमाते हुए माँ के सामने खड़ा हो गया| अब बस मेरे और उस बच्चे के बीच एक ही चीज का फर्क था “कपड़ों का”| वह फटें-पुराने कपड़ों में अपना काम कर रहा था और मैं अच्छे कपडें पहनकर वह काम कर रहा था| जैसें ही मैंने माँ से कहा, माँ ने वहीँ शब्द दोहराते हुए मुझसे कहा जो मैंने उस बच्चे से कहा था और मैं उसी बच्चे की तरह खड़ा होकर माँ को देखने लगा, जब तक की वो मेरी आँखों से ओझल होकर दूसरे कमरे में ना चली गयी और छोड़ गई मेरे ज़ह्हन में एक आवाज़
कर्ज!!!!!!!!!!!
आखिरकार पैसा हमने तो बनाया नहीं हैं वो तो सबके लिए हैं बस किसी के पास कम है और किसी के पास ज्यादा, जिसके पास ज्यादा हैं उसको जरुरत नहीं और जिसके पास कम हैं उसके पास हैं नहीं||