कुछ था जरुर बनारस के घाट पर,
धुंधला दिखा लिबास बनारस के घाट पर|
घर था हज़ार कोस मगर फिकर साथ थी,
मन हो गया उदास बनारस के घाट पर|
साँझा करिया की संधि में विचलित हुआ ये मन,
गढ़ने लगा समय बनारस के घाट पर|
दुनिया के रंग देख कर हर रोज कबीर,
करता है अथाहस बनारस के घाट पर|
बदरंग हुआ जल तमाम मछलिय मरी,
किसका हुआ निवास बनारस के घाट पर|
फिर औ भागीरथ नयी सी गंगा बुलाओ,
गता है रविदास बनारस के घाट पर|
जमने लगी है आरती उत्सव भी हो रहे,
फिर से जगी है आस बनारस के घाट पर|
कशी को बम का खौफ आमा भूल जाइये,
मत बोइये खटास बनारस के घाट पर|
दीना की चाट खूब तो अख्टर की मल्लियो,
रिश्तो में है मिठास बनारस के घाट पर|