Sunday, 21 October 2012

सच और पर्दा




                           पर्दा .........| एक ऐसा लिबास जो लोगो कि बुराइया, लोगो कि इज्ज़त और लोगो के शर्म को छुपाने के काम आता है | पहले लोग घरो में परदे लगा कर घर कि इज्ज़त घर में रखते थे और साथ ही साथ शर्म और हया को भी लेकिन अब तो ट्रेंड चल पड़ा है चहरे पे पर्दा लगाने का, शायद इसी लिए कवियों ने चहरे से परदे हटाने को अपने गानों में भी लिख दिया है | आज जहा देखो वही लोग चहरे पे पर्दा लगाये घूम रह है, ना जाने क्या मज़ा आता होगा चहरे को परदे से ढक कर | अब तो सड़क पे चलती लडकिया भी चहरे पे पर्दा लगा कर ऐसे चलती है जैसे मानो कि शहर नकाबपोशो से भर गया हैं | ये पर्दा तो कुछ भी नहीं, सच के ऊपर पड़ने वाले परदे से |  आज हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ लोग सच के उप्पर पर्दा डालकर रहना ही पसंद करते हैं क्योकि लोगो के अंदर हिम्मत नहीं है “सच का सामना करने कि”, ना जाने कब तक ये दुनिया यू ही सच के बगैर चलेगी | हमारे समाज में पर्दा यंहा तक हैं कि जिस देवी कि हम सब पूजा करते हैं उनके भी चहरे को परदे से ढक के रखा जा रहा हैं| मैं पूछता हू आखिर क्यों? वो हम सबकी माँ हैं, हम सब उनको भक्ति भाव से पूजते हैं, तो फिर ऐसा भेद भाव क्यों? आखिर.........क्यों ?
                  अभी कल ही मैं बाज़ार से लौट रह था तो मैंने कुछ लोंगो को देवी माँ कि प्रतिमा को रिक्शे से ले जाते देखा लेकिन ये क्या लोगो ने उनका मुहँ परदे से ढक रखा था | ऐसा क्यों मैं बस उन लोंगो से यही पूछना चाहूँगा कि वो तो एक प्रतिमा थी लेकिन अगर उस प्रतिमा कि जगह सच मुच में देवी माँ होती या फिर मेरी माँ और आपकी माँ होती तो क्या आप लोग तब भी इसी तरह से उनका मुहँ ढक कर ले जाते यंहा से वहां| नहीं ना तो फिर उस प्रतिमा के साथ जाने अनजाने में ऐसा पर्दा क्यों? कँही ये पर्दा हमारे समाज के लोगों कि सोच और उनके सच पे भी तो नहीं पर्दा डाल रहा |

                  
                                 

Thursday, 18 October 2012

ये जीना भी कोई जीना हैं


                              


                                      मैं इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पे खड़ा हूँ और टिकट लेने कि जुगत में लगा हूँ लेकिन यहाँ क्या देखता हूँ कि एक बन्दा आता है और बाहर घूमते हुए एक क्लार्क के पास जाकर उसे कुछ रूपए देता है और कुछ ही देर बाद उसे तुरनत टिकट भी मिल जाता है, न ही उसे लाइन में खड़े रहने कि जरुरत पड़ती है और न ही इंतजार करने कि बस आओ टिकट के दाम से दस रूपए ज्यादा दे दो बस थोड़ी ही देर में टिकट तुम्हारे हाथो में, शायद इलाहाबाद में इसी तरह टिकट लिया जाता है |  
                              यहाँ लोगो को जीने कि चाह तो है लेकिन दुसरो को निचा दिखा कर और कुछ तो ऐसे है जो कला से भी जीते है इंसान तो ठीक है किसी भी कला कि लिए लेकिन यहाँ के लोगो ने तो जानवरों को भी कलाकार बना डाला है| इसका अहसास मुझे तब हुआ और साथ ही साथ झटका भी लगा जब स्टेशन पर एक औरत को देखा जो एक गाय को ले कर बैठी हुई थी जिसके सामने कुछ घास रखी हुई थी लेकिन पता नहीं क्यों वो गाय घास को खा नहि रही थी | मुझे लगा कि शायद उसे अभी भूख नहीं होगी लेकिन कुछ ही देर में मेरा ये भरम ही चकना चूर हो गया, जब मैंने एक आदमी को घास खरीदते हुए देखा और उसी गाय को खिलाते हुए भी | फिर मुझे सारा माजरा समझ में आया कि वो औरत वहा पे बैठकर लोगो को पुण्य बेचती है, ५ रुपये का पुण्य, १० रुपये का पुण्य और २० रुपये का पुण्य | ये एक ऐसा पेशा है जिसमे सभी खुश हो जाते है घास खरीदने वाला भी, बेचने वाला भी और खाने वाला भी | वैसे अब गाय भी प्रोफेसनल हो गयी है वो जानती है कि सामने रखे हुए घास को नहि खाना है जब तक कोई खरीद के न खिलाये |
                        यहाँ के बारे में और क्या कहू आप सभी जानते है कि यहाँ पे कमरों कि कितनी किल्लत है | एक छोटा सा भी रूम जिसमे दो लोगो के ठीक से खड़े होने कि भी जगह नहीं है उसका भी किराया १५०० रुपये है | यहाँ पे आकर सबसे बड़ा झटका यही लगा, मैंने देखा कि एक मकान के चार कमरों में १० लड़के किराये पे रहते है और मकान ऐसा जिसमे न ही हवा आती है और ना ही साफ सफाई रहती है| जब पता किया कि उस मकान का मालिक कौन है तो पता चला कि उस मकान का मालिक खुद एक मलिन बस्ती में झुग्गी में रहता है और स्टेशन पे बैठ कर बिख़ मांगता है और जब महीने का आखरी सप्ताह आता है तो किरायदारो से पैसे वसूलने पहुच जाता है | ऐसा जीना भी क्या जीना जिसमे खुद को ख़ुशी न पहुचे और दिल को सुकून न पहुचे | सुच में
                        ये जीना भी कोई जीना है ! 
                 

             

Sunday, 30 September 2012

बनारस के घाट पर


कुछ था जरुर बनारस के घाट पर,
धुंधला दिखा लिबास बनारस के घाट पर|
 
घर था हज़ार कोस मगर फिकर साथ थी,
मन हो गया उदास बनारस के घाट पर|
 
साँझा करिया की संधि में विचलित हुआ ये मन,
गढ़ने लगा समय बनारस के घाट पर|
 
दुनिया के रंग देख कर हर रोज कबीर,
करता है अथाहस बनारस के घाट पर|
 
बदरंग हुआ जल तमाम मछलिय मरी,
किसका हुआ निवास बनारस के घाट पर|
 
फिर औ भागीरथ नयी सी गंगा बुलाओ,
गता है रविदास बनारस के घाट पर|
 
जमने लगी है आरती उत्सव भी हो रहे,
फिर से जगी है आस बनारस के घाट पर|
 
कशी को बम का खौफ आमा भूल जाइये,
मत बोइये खटास बनारस के घाट पर|
 
दीना की चाट खूब तो अख्टर की मल्लियो,
रिश्तो में है मिठास बनारस के घाट पर|
 

 

Monday, 10 September 2012

जिंदगी एक क़र्ज़ सी


                        जिंदगी एक क़र्ज़ सी
                                                                             आख़िरकार कई दिनों के बाद जिंदगी एक क़र्ज़ सी लगने लगी हैं| कहीं न कहीं कुछ तो है जो यह सोचने पर मजबूर कर देता हैं की यें जिंदगी आपकी नहीं हैं बल्कि उधर ली हुई हैं और उसका कर्ज हमें हर कदम, हर समय पे चुकाना पड़ता हैं| यह अहसास आज सुबह ही मुझें हुआ, जब मैं घर से निकल रहा था| तभी पीछे से आवाज आई “शाम को आते समय सब्जियां लेते आना”, लेकिन मैं आवाज को अनसुना करता हुआ अपनी ही मस्ती में आगे बढ़ने लगा| कुछ दूर आगे बढा ही था की एक बच्चा हाथ में कटोरा लिए हुए, फंटे-पुराने कपडे पहने और आँखों में मासूमियत के छोटे-छोटे तारे बनाये हुए कुछ पाने की चाह में मेरे सामने आ खड़ा हुआ| उसे देखते ही मेरे हाथ बिना मेरी इज्जाजत लिए जेब की तरफ बढ़ उठे, कुछ टटोलने के बाद बहार निकले और मेरे मुहँ से निकल पड़ा “छुट्टे नहीं हैं”| मैं आगे बढ़ चला और तब तक पीछे मुड़कर नहीं देखा जब तक मुझे विश्वास नहीं हो गया की अब मैं उस बच्चे की आँखों से ओझल हो चूका हूँ|
                                                                   दिनभर के सारे कामो को निपटने के बाद शाम को जब सब्जी लेकर घर पंहुचा तब तक मेरे सारे पैसे खत्म हों चुके थें| तब मैंने माँ से ही पैसे मांगना उचित समझा और उसी छोटे बच्चे की तरह आँखों में मासूमियत के तारे टिमटिमाते हुए माँ के सामने खड़ा हो गया| अब बस मेरे और उस बच्चे के बीच एक ही चीज का फर्क था “कपड़ों का”| वह फटें-पुराने कपड़ों में अपना काम कर रहा था और मैं अच्छे कपडें पहनकर वह काम कर रहा था| जैसें ही मैंने माँ से कहा, माँ ने वहीँ शब्द दोहराते हुए मुझसे कहा जो मैंने उस बच्चे से कहा था और मैं उसी बच्चे की तरह खड़ा होकर माँ को देखने लगा, जब तक की वो मेरी आँखों से ओझल होकर दूसरे कमरे में ना चली गयी और छोड़ गई मेरे ज़ह्हन में एक आवाज़
कर्ज!!!!!!!!!!!
आखिरकार पैसा हमने तो बनाया नहीं हैं वो तो सबके लिए हैं बस किसी के पास कम है और किसी के पास ज्यादा, जिसके पास ज्यादा हैं उसको जरुरत नहीं और जिसके पास कम हैं उसके पास हैं नहीं||  

Sunday, 19 August 2012

आज खुश हूँ

                             आज खुश हूँ


आज खुश हूँ, जो मिल गया
उसके जज्बातों में खुश हूँ
और जो न मिला
उसके अरमानो में खुश हूँ |

आज खुश हूँ

सूखी रोटी के टुकड़े में खुश हूँ
और कभी आधी पकी हुई दाल में खुश हूँ |

आज खुश हूँ

जो दोस्त मिल गए उनकी खुशी में खुश हूँ,
और उनके ना रहने पर,
अपने गमो के सागर में गोते लगा कर खुश हूँ,
आज खुश हूँ ..............

आज खुश हूँ
इलाहाबाद के अल्हडपन में खुश हूँ
और  खुद के अंदर बिखरे हुए
बनारस की खुशबु में खुश हूँ |

आज खुश हूँ ........................................|

आज खुश हूँ

आज खुश हूँ इलाहाबाद के लोगो से
 मिलकर खुश हूँ

आज  खुश हूँ सही और गलत के
बीच के फासले को जानकर खुश हूँ |
आज खुश हूँ

आज खुश हूँ ये जानकर की
मैं कितना गलत था और हूँ
इसलिए आज खुश हूँ |

आज खुश हूँ

आज खुशी इस बात की भी है की
आख़िरकार कैसे लोग अपनी बातो को
तवज्जो देने के लिए काम करते हैं,
यह देख कर आज खुश हूँ |

 आज खुश हूँ..........

आज खुश हूँ यह देखकर की
कैसे लोग दूसरों की परेशानियों को
अपने बीच की चर्चा का विषय बना लेते हैं |

आज खुश हूँ ......................

जो चाहा वो न मिला
और जो न चाहते हुए मुझे मिला
उन्ही बुरइयो को अपने सीने से लगा कर खुश हूँ |
आज खुश हूँ ...............................................................
...............................................................................
.............................................................................


शायद जिंदगी की खुशी यही हैं

भारतीय क्रिकेट टीम को लछमण का अलविदा





                     “सन्यास लेने का सही वक्त है - वी.वी.एस लछमण “
             कई दिनों के खराब प्रदर्शन के बाद अब वी.वी.एस लछमण ने भारतीय क्रिकेट टीम से सन्यास लेने का फैसला किया है | इससे पहले २३ अगस्त से न्यूजीलैंड के खिलाफ शुरू होने वाले दो घरेलु टेस्ट क्रिकेट सिरीज़ के लिए भारतीय टीम में शामिल किया गया था | जब से बी.सी.सी.आई. ने अपना यह फैसला सुनाया हैं उसके तुरंत बाद ही आलोचकों ने लछमण के खिलाफ अपने कड़े तेवर को दिखाना शुरू कर दिया | लोगो का कहना है की वी.वी.एस लछमण अब ३७ वर्ष के हो गए है,अब वो खेलने लायक नहीं रहे और वो नए युवा खिलाडियों के भविष्य के लिए बाधक बन रहे है, शायद लोग वी.वी.एस लछमण को बुढा मानने लगे है पर वो ये नहीं जानते की वी.वी.एस लछमण ही है जिसने तीन टेस्ट सीरीज में ५०० से ज्यादा रन बनाकर पहले भारतीय बल्लेबाज का ख़िताब अपने नाम किया है और साथ ही फलोऑन के बाद शतक बनाने वाले दो भारतीयों में से एक है |
                             अभी तक उम्मीद जताई जा रही थी की वी.वी.एस लछमण न्यूजीलैंड सिरीज़ के बाद ही सन्यास लेंगे लेकिन उनके अचानक इस फैसले ने सभी को हैरत में दाल दिया है | वन डे क्रिकेट से तो उन्होंने पहले ही सन्यास ले लिया है और अब टेस्ट क्रिकेट को भी छोडकर जाने का उनका ये फैसला सबके लिए हैरानी की बात है | वी.वी.एस लछमण के सन्यास की घोषणा की बात से तो ज़ाहिर है की अब उनके क्रिकेट प्रमियो को कभी भी वी.वी.एस लछमण के बल्ले का जादू देखने को नहीं मिलेगा |
                             जब से वी.वी.एस लछमण ने सन्यास लेने का फैसला किया है तब से उनके चाहनेवाले काफी दुखीः हो गए है और हो भी क्यों ना जब वी.वी.एस लछमण का चयन न्यूजीलैंड के खिलाफ खेले जाने वाले टेस्ट सिरीज़ में हो गया था तो अचानक उनके सन्यास लेने का फैसला कुछ ठीक नहीं लगता है कही ऐसा तो नहीं की उनके ऊपर टीम से सन्यास लेने के लिए दबाव बनाया गया हो, अगर ऐसा कुछ है तो उनको बताना चाहिए की कौन है जो उनके उपर दबाव बना रहा है | लेकिन वी.वी.एस लछमण खामोश है |

Friday, 17 August 2012

                  बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ पे छापा 
                                                    बाबा रामदेव के हरिद्वार स्थित पतंजलि योगपीठ पे गुरुवार को फ़ूड सिक्युरिटी विभाग ने छापा डाला| फ़ूड सिक्युरिटी विभाग ने बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ में पड़े बेसन और शहद का सैम्पल लिया और टीम से वरिष्ठ सदस्य ने बताया है की वो इन सभी सैम्पल्स को जाच के लिए भेजेगी |
               बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ में काफी सारा बेसन और शहद पड़ा हुआ था जिनका इस्तेमाल दवाईयों को बनाने में किया जाता था | 
                                     

ये सूरत बदलनी चाहिए

                           ‘भाग भाग डी के बोस.......’ यह वाक्य आज न चाहते हुए भी हमारे कानो में पढ़ जाता है, एक गाने के रूप में| क्योकि आज लोग ‘दम मारो दम’ और ‘देसी बॉय’ को ज्यादा पसंद करते है|
पहले के समय का नायक सभ्य और शरीफ होता था, लेकिन अब उनका क्या करे जिन्होंने MkWu को ही अपना नायक बना लिया है|  

                       ऐसे अभद्र गाने इस देश में पैर पसर चुके है, की हर कोई इसका शिकार भी है और शिकारी भी| इसकी जड़े इतनी गहरे तक फ़ैल चुकी है है की बच्चो के सोचने की बुनियाद कमजोर होती नजर आ रही है| एक सदी पहले शुरू किया गया सिनेमा का कार्य, लोगो तक अपनी बाते पहुचना था, लेकिन लोगो ने कुछ नया देखने के चाक्कर में सिनेमा को ऐसे मोड पे लाकर खड़ा कर दिया है जहा अब लोग अपने परिवार के साथ बैठकर सिनेमा देखने से कतराते है| अब तो आलम यह है की बस युवा पीढ़ी ही केवल सिनेमा की तरफ रुझान किये है और वयस्कों ने तो उस ओर से अपना धयान ही हटा लिया है क्यूकी वो जानते है की पहले ‘मेरा नाम जोकर’, ‘मदर इण्डिया’ जैसी फिल्मे बनती थी जो दिल को छु लेती थी लेकिन अब सिनेमा के १०० साल पुरे होने के बाद यह पूरी तरह से बदल चूका है| इस समय की फिल्मे ‘मर्डर’, ‘जिस्म’, ‘दिर्टी पिक्चर’ जैसी फिल्मे आ गई है, जो काफी अभद्रता प्रदर्शित करती है| अब तो लोगो ने फिल्मो की ऐसी सूरत बना रखी है जैसे किसी व्यक्ति ने चाय के प्याले को अपने सफ़ेद कमीज पे गिरा दिया हो, आखिर फिल्मो की ऐसी सूरत बनाने में भी तो इंसानों का ही हाथ है| शायद फिल्मो की ऐसी सूरत बनाने वालो ने यह नहीं सोचा था की आखिर उनके आने वाले बच्चो के भविष्य पे ये कैसा प्रभाव डालेगी| उन बच्चो के भविष्य को सुधरने की जिम्मेदारी हमें उठानी चाहिए और फिल्मो की “ये सूरत बदलनी चाहिए” 

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Thursday, 16 August 2012

                            

                साइना नेहवाल ने बदली बैडमिंटन की तस्वीर

आज कल सयेना काफी व्यस्त है जब से वो लन्दन से वापस आई है उनको हर समय मीडिया घेरे रहती है.
साइना, ओलंपिक में अपनी उपलब्धि से बेहद खुश हैं. हों भी क्यों ना. वो ओलंपिक में मेडल हासिल करने वाली भारत की पहली बैडमिंटन खिलाड़ी हैं.
साइना कहती हैं, "मैं इस बात से बहुत खुश हूं कि मेरी उपलब्धियों की बदौलत भारत में लोगों की बैडमिंटन के प्रति दिलचस्पी काफी बढ़ गई है. अब मां-बाप अपने बच्चों को बैडमिंटन खेलने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. भारत में इस खेल की इस बदली हुई तस्वीर के लिए मैं अपने आपको क्रेडिट देना चाहूंगी."
साइना ने साबित कर दिखाया कि बैडमिंटन में चीनी खिलाड़ियों के दबदबे को चुनौती दी जा सकती है. हालांकि साइना, स्वर्ण पदक से चूकने पर थोड़ी निराश जरूर होंगी लेकिन उनके लिए कांस्य पदक जीतना भी बहुत बड़ी उपलब्धि है.
उन्होंने बताया की जब वो पोडियम में खड़ी थी और उनको कांस्य पदक पहनाया जा रहा था और जब तिरंगा झंडा ऊपर जा रहा था साथ ही भारतीय दर्शक जोर जोर से उनका नाम पुकार रहे थे, तब वो अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई. सयेना ने कहा की ये उनके जीवन का सबसे यादगार क्षण था.
साइना ने बताया कि लंदन ओलंपिक्स में उन्हें दर्शकों का जबरदस्त समर्थन मिला और उनके हर मैच के दौरान दर्शक जोर-जोर से साइना-साइना और भारत माता की जय जैसे नारे लगाते रहे, जिससे उन्हें ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि वो भारत से बाहर खेल रही हैं.
साइना का कांस्य पदक निर्धारण मैच में चीनी खिलाड़ी और विश्व नंबर 2 ज़िंग वैंग से था. जिसमें वैंग के घायल होने की वजह से साइना को जीता घोषित किया गया था और उन्हें कांस्य पदक मिल गया था. साइना ने कहा, "जिस तरह से मैं खेल रही थी मुझे पूरा यक़ीन था कि मैच पूरा होता तो मैं ही जीतती."साइना ने कहा कि वो महिला बॉक्सर मेरी कॉम से भी बेहद प्रभावित हैं, जिन्होंने दो बच्चों की मां होने के बावजूद जबरदस्त दृढ़ संकल्प दिखाया और लंदन ओलंपिक में भारत के लिए कांस्य पदक जितने का वादा  भी किया है .
साइना के कोच पी गोपीचंद ने भी माना कि साइना के मेडल जीतने के बाद से उनकी हैदराबाद स्थित पी गोपीचंद एकेडमी में बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चों को एडमिशन के लिए ला रहे हैं और उन्हें मजबूरन एडमिशन बंद करने पड़े हैं.

Monday, 13 August 2012

आज के समाज में किसी के भी पास इतना भी समय नहीं है की वो खुद के लिए या फिर अपने परिवार के लिए थोडा सा समय निकल कर कुछ आनंद के पल बिता सके| काश वो पुराने दिन लौट आते जब हमें किसी की भी परवाह नहीं रहती थी बस खेलना और खेलना और कुछ भी नहीं |
शायद इसीलिए ये गाना भी बना है की.....

                                   कोई लौटा दे वो प्यारे प्यारे दिन.......................